कानूनों की समानता पर छिड़ी बहस: वक्फ एक्ट 1995 असंवैधानिक क्यों? सुप्रीम कोर्ट का अहम कदम
के कुमार आहूजा कान्ता आहूजा 2025-05-30 09:45:26

भारत में धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन को लेकर हमेशा से ही संवेदनशील बहस रही है। इसी कड़ी में, सुप्रीम कोर्ट में वक्फ अधिनियम 1995 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है, जिससे एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या यह कानून देश के संविधान के मूल सिद्धांतों, विशेषकर समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। याचिकाकर्ता का दावा है कि यह कानून भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह केवल एक समुदाय विशेष के लिए अलग ट्रिब्यूनल और विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जबकि अन्य धार्मिक समूहों के लिए ऐसा कोई समान प्रावधान नहीं है। इस चुनौती ने एक नई बहस छेड़ दी है कि क्या देश में धार्मिक ट्रस्टों के लिए एक समान कानून की आवश्यकता है।
वक्फ अधिनियम 1995 पर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में वक्फ अधिनियम 1995 को चुनौती दी है, जिसमें उन्होंने इसे "पूरी तरह से असंवैधानिक" बताया है। उपाध्याय का तर्क है कि यह कानून भेदभाव पैदा करता है क्योंकि हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों, सिखों, पारसियों, ईसाइयों, यहूदियों या बहाइयों के लिए कोई अलग ट्रिब्यूनल मौजूद नहीं है, जैसा कि वक्फ संपत्तियों के लिए है। उनका यह दावा संविधान के अनुच्छेद 14 का स्पष्ट उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित करता है। इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर लिया है और केंद्र तथा राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है।
संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन और भेदभाव का आरोप
उपाध्याय की याचिका में कहा गया है कि वक्फ अधिनियम के कई प्रावधान, जिनमें धारा 3(r), 4, 5, 6(1), 7(1), 8, 28, 29, 33, 36, 41, 52, 83, 85, 89, 101 शामिल हैं, संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26 और 27 के खिलाफ हैं। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि केवल मुसलमानों के पास अपनी धर्मार्थ संपत्तियों के प्रशासन से संबंधित एक कानून है, जबकि अन्य धर्मों के पास ऐसा कोई समान कानून नहीं है, जिससे यह कानून भेदभावपूर्ण हो जाता है। उन्होंने वक्फ की परिभाषा (धारा 3(r)) को भी चुनौती दी है, जिसे "स्थायी समर्पण" के रूप में परिभाषित किया गया है, और इसे "प्रशासनिक या न्यायिक रूप से प्रबंधनीय सीमाओं से परे" बताया है।
वक्फ बोर्ड की शक्तियां और अन्य आपत्तियां
याचिका में वक्फ बोर्ड को दी गई व्यापक शक्तियों पर भी सवाल उठाए गए हैं। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि राज्य सार्वजनिक खजाने की कीमत पर वक्फों और उनकी संपत्तियों के सत्यापन के लिए किए गए खर्चों को वहन नहीं कर सकता है, जबकि अन्य धार्मिक संस्थानों और उनकी संपत्तियों के सर्वेक्षण के लिए ऐसा कोई समान अभ्यास या खर्च का अनुदान नहीं है। उपाध्याय ने कहा कि वक्फ और उसकी संपत्तियों के सत्यापन के लिए सर्वेक्षण का खर्च राज्य को नहीं उठाना चाहिए। उनका मानना है कि धार्मिक ट्रस्टों और बंदोबस्तों के लिए एक सामान्य/समान कानून होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया और आगे की कार्यवाही
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए शुरुआत में याचिका दाखिल करने में हुई देरी पर सवाल उठाया था, यह देखते हुए कि 1995 के कानून को 2025 में चुनौती दी जा रही है। हालांकि, उपाध्याय ने बताया कि 2013 के संशोधन को भी चुनौती दी गई है और सुप्रीम कोर्ट पहले से ही पूजा स्थल अधिनियम 1991 और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है। अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने केंद्र की ओर से पेश होते हुए कहा कि उन्हें इस याचिका को अन्य लंबित याचिकाओं के साथ जोड़ने पर कोई आपत्ति नहीं है, जो 1995 के अधिनियम को चुनौती देती हैं। अब यह मामला उन अन्य याचिकाओं के साथ टैग कर दिया गया है जो वक्फ अधिनियम को चुनौती दे रही हैं, और आगे की सुनवाई के लिए लंबित है। इस मामले का परिणाम धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन और भारत में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर दूरगामी प्रभाव डाल सकता है।